Friday 9 December 2011

ओस की वो बूँद

एक बूँद ओस की 
धुली-धुली 
खिली-खिली
मनचली ! !
ढलकती पत्तों से
रुक जाती है एक फूल पर
चूमती पंखुडियां
झूमती....करती अठखेलियाँ
भ्रमर राग पर नाचती !!
न है आस उसे सागर की
न है प्यास उसे गागर की
धरा गोद में समा जाती है
मिटटी में मिल जाती है
भर जाती है ताजगी
हर कण में ...जिसे वो छू जाती है !!

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