Monday 19 December 2011

वरदान

बिशम्भर बाबू ने अपनी बेटी की डोली को आँखों से ओझल होते हुए देखा और एक राहत की सांस ली. ये इनकी तीसरी और सबसे छोटी बिटिया थी.धनुआ ,घर का नौकर ,आकर मालिक के बगल में खड़े होते हुए कहा "चलिए मालिक ,बैंड बाजा  वाले पैसे लने आये हैं" . बिशम्भर बाबू ने लम्बी दृष्टि से उस पथ को निहारा जहाँ से बिटिया की डोली विदा हुई थी और तेज कदमो से घर की ओर चल पड़े.
 

बिशम्भर बाबू गाँव के सुभ्यस्त लोगों में से थे. ज़मींदार तो नहीं पर अपने पांच  बीघा ज़मीन से राजसी ठाट बनाये रखते थे. पिता की मृत्यु बचपन  में ही हो गयी थी पर बड़े जतन और लगन से उन्होंने अपने पुश्तैनी ज़मीन की देखभाल की थी . चाहते तो  डाक्टरी और इंजीनियरिंग की डिग्री ले सकते थे परन्तु माँ को अकेले नौकरों के हवाले छोड़ कर जाने का मन  नहीं किया. माँ के कहने से इक्कीस वर्ष की आयु में निर्मला देवी से ब्याह  भी हो गया. निर्मला देवी देखने में साधारण थी पैर कद काठी अच्छी थी और गृहकार्य में भी दक्ष थी . अपने पिता के यहाँ राजकुमारी सी पली थी. यहाँ भी चाहती तो  पटरानी बनकर रह सकती थी पर बिशम्भर बाबू की माँ  तारिणी देवी कुछ तीक्ष्ण स्वाभाव की थी और बेटे के सामने बहू की गलतियाँ गिनाने  से चूकती नहीं थी . बिशम्भर बाबू ,पत्नी को कुछ कहते नहीं पर निर्मला सहमी और दरवाज़े के ओट में ही छुपी रहती .
पति पत्नी के रिश्ते में सहजता नहीं था , न निर्मला खुल पाती न बिशम्भर बाबू अपनी बात पत्नी से कह पाते, पर गृहस्ती की गाड़ी जो भी पहिये थे उसपे चलती रहती. ब्याह के दूसरे साल पहली संतान की प्राप्ति हुई. बेटी के पैदा होने पर न निर्मला को मलाल था न बिशम्भर बाबू को पर तारिणी देवी ने बेटी होने का दोष निर्मला का बताया . गाँव में हर घर में मिठाई बंटवाए गए . निर्मला अब और दबी दबी रहती ,घर का काम काज करती तो बेटी की देखभाल नहीं कर पाती और गृहकार्य में गलतियाँ होती तो  तारिणी देवी के ताने सुन ने पड़ते . एक बार बिशम्भर बाबू से निर्मला ने हंस कर कहा की "बेटी होने का कसूरवार माँ मुझे ठहराती  है " इस पर बिशम्भर बाबू हंस दिए और बोले के अगले बार बेटा होगा तो माँ की नाराज़गी दूर हो जाएगी.


सास
 को खुश करने की आस लगाये निर्मला ने अगले साल फिर संतान के जनन की तैयारी  की पर इस बार भी बेटी ही हुई .  तारिणी देवी नागिन सी फुफकारती  आँगन में टहलने लगी और बहू को उच्च स्वर में  खरी खोटी सुनाने लगी. बिशम्भर बाबु ,नए बच्ची के आगमन से न दुखी लगे न खुश . गाँव भर में इस बार भी मिठाई बांटी गयी . निर्मला मायूस हो अपने दिनचर्या में लगी रहती.  बड़ी बेटीमञ्जूषा  अब  दौड़ने लगी थी . छोटी , आशा की भी देखभाल करनी थी इसलिए बिशम्भर बाबू  ने एक महरी रख दी . तारिणी देवी को ये बात न सुहाई . कटाक्ष के तीर अब और पैने होने लगे थे .


उस साल फसल के ठीक न होने से बिशम्भर बाबू परेशान थे और इस परेशानी में परिवार को भूल ही गए थे. सुबह के गए
, रात को आते और थके हारे सो जाते. कभी शहर जाते तो रात वही बहनोई के यहाँ रुक जाते.  एक साल बीतते देर नहीं लगी और निर्मला ने फिर गर्भ धारण किया . बिशम्भर बाबू, अपनी और निर्मला की परेशानी को देखते हुए ,निर्मला को उसके पिता के घर छोड़  आये . निर्मला आशंकित  मन से पिता के घर रहतीकही इस बार भी बेटी हुई तो कही पती उसे छोड़ न दे. पिता के घर कुछ ख़ास काम नहीं होता इसलिए  पूजा पाठ  और बेटियों के साथ खेलने में दिन बिताती. इस बार खूब वजन भी बढ़ गया था. घर में सब कहते की इस बार ज़रूर बेटा होगा . जैसे जैसे दिन नज़दीक आ रहा था निर्मला का विश्वास और बढ़ रहा था . पर इस बार भी देव ने बेटी ही दी . घर में सन्नाटा छा गया . बिशम्भर बाबू को संदेसा भेजा गया. बिशम्भर बाबू दस दिन बाद बच्ची को देखने आये. मञ्जूषा और आशा के सर पे भी हात फेर गए पर निर्मला को साथ ले जाने की कोई बात नहीं की . निर्मला अपने भाग्य को कोसती , बेटियों को अपने माँ के हवाले कर ,सारा दिन पलंग पर पड़ी रहती.

दस महीने बाद बिशम्भर बाबू ने जब ससुराल के ओर कदम बढ़ाये तो माँ की कडवी बातें  सुननी पड़ी. संतान मोह और पत्नी के प्रति कर्त्तव्य बोध ने उन्हें रुकने न दिया .  ससुराल जाकर देखा तो बेटियां नन्ही परिया लग रही थी.  तीनो अपने पिता के सूरत पर  गयी थी. निर्मला की हालत देख बिशम्भर बाबू को अच्छा न लगा. बिन चरक की साडी , सूखे केश, गाल धंसे हुए दरवाज़े की ओट में आ खड़ी हुई. लग रहा था जैसे अपने सारे सुखों को तिलांजलि दे दिया हो . बिशम्भर बाबू से रहा न गया ,साथ चलने को कह दिया. संगिनी न सही पत्नी तो थी , इस हाल में उसे कैसे छोड़ सकते थे .


घर पे फिर एक बार
  तारिणी देवी के शोषण की कहानी शुरू हुई. निर्मला ने बड़े धैर्य से सब कुछ सहना शुरू कर दिया जैसे अपने आप को इन सब के ज़िम्मेदार मानती हो.तारिणी देवी अब बीमार रहने लगी थी. एक महरी उनके लिए नियुक्त कर दी गयी पर बहू को बिना आवाज़ लगाये उनका एक काम भी नहीं होता . कुछ महीने तो  कटे पर  फिर खाट पकड़ ली उन्होंने. इस बार की शीत  सह पाई और गुज़र गयीं . जाते  जाते बेटे के कान में बोल गयी पोते के हाथ से गंगा में जल डलवाने से ही उनके आत्मा को मुक्ति मिलेगी.
उनके आत्मा का तो पता नहीं पर  निर्मला को ज़रूर मुक्ति मिल गयी. अब वो अपने बेटियों संग हसती  बोलती और कभी कभी गुनगुना भी लेती. बिशम्भर बाबू से भी कभी कभी हसी कर लेती. 


वक़्त के
 तो पर लगे थे. कैसे बीतता गया पता ही नहीं चला. तीनों  परियां  अब  सुन्दर किशोरियां बन गयी . निर्मला ने तीनो में हर तरह के गुण भरे. ईश्वर का दिया देन सोच कर उन्हें सजाती सवरती रहती और फिर एक दिन तीनो को एक एक कर डोली में विदा  कर दिया.


बैंड बजा वाले को पैसे दे
 बिशम्भर बाबू ने चौपाल का रुख किया. बेटी के ब्याह के व्यस्तता  के कारण कई दिन से चौपाल पर  नहीं गए थे . जाते ही गाँव के मुखिया बोल उठे "कर आये बेटी विदा?" बिशेम्भर बाबू ने बस मुस्कुरा दिया. चौधरी जी के मुख पर भी कुटिल मुस्कान उभर आई और वे नज़रें तिरछी  करते हुए पूछ बैठे "अब क्या इरादा है बिशम्भर ,तेरे राज पाठ का क्या होगा ?" बिशम्भर बाबू थोड़े सकपका गए और बस इतना ही बोल पाए की दामाद देख लेंगे. चौधरी जी ने तो  बस आज ठान ही ली थी, बोले "दामाद भी कभी अपने होतें हैं, वंशज तोह नहीं कहलायेंगे ना ?". बिशम्भर बाबू के कपोल में रंग भर आये और वो  नीचे देखने लगे. मुखिया बोल उठे "दूसरी शादी की कभी न सोची क्या ?? नाती की भी उम्मीद मत रखना.तुम्हारी पत्नी के तो  बेटे हुए नहीं...तुम्हारी बेटियों से भी नातियों की उम्मीद मत रखना. सोच कर देखो बिशम्भर , मन बने तो  मुझे बताना ". बिशम्भर बाबू किसी तरह जान छुड़ा कर वहां से भागे. घर आकर ठन्डे पानी से नहाया पर अपमान अब जीवन का तथ्य लगने लगा उन्हें. उस रात नींद उनसे कोसों दूर थी. सुबह उठते ही धनुआ को मुखिया के घर भेज केहेलवा दिया की वो दूसरी शादी को तैयार है. निर्मला से पूछने की हिम्मत नहीं हुई.  तिरस्कार का डर  नहीं था पर शब्द साथ न देंगे इसका डर ज़रूर था.



शाम को मुखिया बगल के गाँव के एक गरीब ब्राहमण परिवार की कन्या का रिश्ता ले घर पहुँच आये. अपनी कन्या को दोबिहे वर से शादी करवाने के लिए ब्रह्मण
 को कोई परेशानी नहीं थी क्युकी उसके घर अन्न के भी लाले पड़े थे , बेटी की शादी तो वो  कर ही नहीं पाता . बिशम्भर बाबू ने सर झुका कर सब सुना ,उनके मन में न कोई हर्ष  था न कोई विषाद . निर्मला ने भी दरवाज़े से ओट से सब सुना. अकस्मात् ही ऐसे समाचार से उसका दिल घबरा गया पर चट्टान सी बनी अपने  को स्थिर रखा . घर को व्याह के लिए तैयार किया गया , बेटी के व्याह का कोहबर अभी  फीका भी नहीं पड़ा था. 


नयी
 दुल्हन के घर में आगमन से घर में एक नयी लहर सी दौड़ गयी. कभी बेल के शरबत बन रहे होते तो कभी सुगन्धित जल का प्रबंध हो रहा होता. छोटकी दुल्हिन का नाम कामिनी था. देखने में सुन्दर थी और समझदार भी. पहले दिन से ही राजसी ठाट के लुफ्त उठाने लगी. पान के बिना एक पहर भी न बीत पता. रेशमी साड़ियों के अम्बार लग गए थे. बिशम्भर बाबू शहर  जाते तो छोटकी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर लाते. निर्मला  यह सब देखती पर उसे न इर्षा होती न अपमान लगता. जो जगह उसकी थी ही नहीं उसके जाने का क्या दुःख. घर की देखभाल करने में लगी रहती और कामिनी बिशम्भर बाबू के दिल पर राज करती. व्याह के छे महीने बाद माघ महीने में फिर से घर  में नया मेहमान के आने का संदेशा आया. छोटकी के लिए सारे घर के नौकर और मेहरियाँ सेवा में जुट गयीं . कहीं आम की चटनी पिस रही होती तोह कहीं कच्चे रसगुल्ले हाट से मंगवाए जा रहे होते.


इस बार का
 दुर्गा पूजा विशेष ही होने वाला था. बिशम्भर जोर शोर से पूजा की तय्यारी में लग लग गए. ठाकुर बाड़ी  की लिपाई पुताई करवा खूब सजावट की . इस बार देवी के दया की उन्हें बहुत  ज़रुरत थी और हर कार्य करवाने के बाद एक पुत्र की कामना ज़रूर करते. देवी की पूजा षष्टि से शुरू हो गयी. हवन और देवी श्लोक के वातावरण गूंजित हो जाता. छोटकी रेशमी  साडी पहने ठाकुर बाड़ी में देवी के दर्शन भी कर आई. पति के प्रेम एवं रईसी ने उसके मुख पर लाली ला दी थी. बिशम्भर बाबू , सारा दिन उपवास करते और दिन में ११ ब्रह्मण और ११ कन्याओं को , अपने हाथों से भोजन परोसते . इस बार दुर्गा माँ से वो  पुत्र वरदान ले कर ही रहेंगे, ऐसा लगता था .
आज नवमी  पूजन  भी संपन्न हुआ. कल देवी माँ वापस अपने घर चली जाने वाली थी . अब तक बिशम्भर बाबू के कोई भी कार्य में विघ्न न हुआ. वो प्रसन्न और निश्चिन्त थे. इस बार पुत्र ज़रूर होगा और उनकी माता की आखिरी इच्छा भी पूरी होगी. थके हारे न जाने कब उनको नींद आ गई. महरी ने आकर जगाया "मालिक छोटी दुल्हिन को दर्द हो रहा है" . बिशम्भर बाबू हडबडा के उठे और आँगन में चहल कदमी करने लगे. निर्मला भी एक कोने में खाट पे बैठ गयी. रात के तीन बजे , बच्चे के रोने की आवाज़ आई. बिशम्भर बाबू के ललाट पे पसीना छलक आया.स्तब्ध वही खड़े हो गए.


मेहरी हाथ में बच्चे को लिए कमरे से बाहर आई और
 निर्मला  के हाथों में दे दिया. सर झुका कर बोली " बेटी हुई है".
बिशम्भर बाबू निढाल हो खाट पर  गिर पड़े . आँगन के अँधेरे से धनुआ सर झुकाए हाज़िर हुआ और धीमे स्वर में बोला " मालिक, हनुमान जी की पूजा करते तो आज पुत्र होता , देवी की पूजा की थी ना  इसलिए बेटी हुई ". निर्मला स्नेह भरी नज़र के बच्ची को पुचकार रही थी.



6 comments:

  1. I dont read hindi story but after I started reading first few lines...I felt like reading few more lines..then few more..then few more...and finally I read the whole story...& juss want to ask u from where u get these ideas in ur mind..why dont u start writing for some magazines ppl wud love to read it..Nice story Rashmi :-)

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  2. Thanks Shashank. Hahahaha, have already described myself as a blabberer so no serious writing. These characters are almost real life characters n we all come across such people in our lives...so inspired by them .

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  3. Do u write something in English also I wud love to read them plz share if u have something

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  4. कहानी बहुत ही मार्मिक है । सदियों से निर्दोष होते हुए भी सर झुकाने को विवश, आदर्श नारी और त्याग की मूर्ति बनी अबला मन में टीस छोड़ जाती है !

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  5. Very rightly written & nicely put. We are the biggest hipocrates & women being the biggest enemy of a women.

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  6. सही कहा दीदी ...हम देवी के अनेक रूपों की पूजा करते है और बेटियों का तिरस्कार भी यहीं होता है .भारत जैसे संवेदनशील समाज को न जाने कब नारी का महत्त्व समझ आएगा. Santanu,आपने सही कहा, ज़रुरत है जागरूकता फ़ैलाने की और रुढ़िवादी सोच को जड़ से मिटने की....

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