Saturday 10 December 2011

सागर किनारे

धुल रही थी रात उजली चांदनी में
जैसे चांदी  का वर्क चढ़ा दिया हो इस जहाँ पर
बस रेत ही लग रहा था स्वर्णिम सा 
बचपन  में शंख कान से लगा सागर को सुना था
आज आँखों के सामने था सागर
पर लग रहा था स्वर उसका मधिम सा
धडकनों की आवाज़ गूँज रही थी
कभी मैं सागर को देखती ,कभी रेत को 
अचानक मैं बोल उठी  
"देख रहे  हो बैठे है हम तुम यहाँ
पर दिख रही है एक ही परछाई"
कुछ पल देखता रहा मुझे, बिना पलक झपकाए
बोला "यह हमारी ,तुम्हारी परछाई नहीं
यह तोह है उस मन  की परछाई
जिसमे दो मिलकर एक हो गए हैं"
मेरे अधरों पे मुस्कान खेल रही थी
और मैं सोच रही थी.....
कितना सहज है यह प्रेम ........ 

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