Sunday, 15 January 2012

अपने सपने

कल बाज़ार में सपनो को बिकते देखा,
कुछ सपने हम भी खरीद लाये !
छोटे-बड़े रंग-बिरंगे................
फिर तो मानो कदमो को पर लग गए थे,
यूं  हुआ रास्ता तय बाज़ार से घर तक का,
घर के हर कोने को सपनो से सजाया ;
निहारती रही....
इतराती रही.....
मुस्कुराती रही....
फिर आया न जाने कहा से  एक झोका हवा का,
गिर ज़मीन पर  सपने हुए  चकनाचूर !!!
मन ने दुकानदार को कोसा,
काश ! बता देता के सपने थे कांच के !!
बेचैन  हुई,
हैरान हुई,
परेशान हुई,
सुनाई  दी फिर अंतरात्मा की आवाज़
कह रही थी.....
दूसरों के बनाये सपने हमेशा कांच के ही होते  है,
बैठ लुहार की तरह,
दे अपने सपनो को आकार
फिर देखो कैसे
सजाते है वो  तेरा संसार .......!!!!!